बाबाधाम देवघर
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर, जिसे बाबा बैद्यनाथ धाम और बैद्यनाथ धाम भी कहा जाता है, शिव के सबसे पवित्र निवास स्थान बारह ज्योतिर्लिंगस में से एक है। यह भारत के झारखंड राज्य के देवघर में स्थित है। यह एक मंदिर परिसर है जिसमें बाबा बैद्यनाथ के मुख्य मंदिर शामिल हैं, जहां ज्योतिर्लिंग स्थापित है, और 21 अन्य मंदिर हैं
Monday, October 1, 2018
Thursday, September 27, 2018
जानिए आखिर क्यों भगवन भोलेनाथ शिवजी ने अपने ही पुत्र भगवन गणेश का सिर काट दिया था |
जानिए आखिर क्यों भगवन भोलेनाथ शिवजी ने अपने ही पुत्र भगवन गणेश का सिर काट दिया था |
कहावत है न जैसा कर्म वैसा फल देगा | कर्म और उसके फल के नियम से इंसान क्या भगवान् क्या |
हमारे ग्रंथो और पुराणों भी ऐसी कई कहानियों से भरी पड़ी है जिसमे भगवानो द्वारा किये बुरे कर्मो का फल उन्हें भी भुगतना पड़ा है
आज हम ऐसी ही एक कथा कहेंगे जिसमे कश्यप ऋषि के श्राप के कारण भगवान् शिव ने अपने पुत्र गणेश का शीश(सर) काट दिया|
बाल गणेश के जन्म की कहानी:-
एक बार की बात है, माता पार्वती अपने स्नान गृह में स्नान कर रही थी| लेकिन उनके स्नान गृह के द्वार पर कोई भी द्वार पाल नहीं था| सारे गण भगवान् शंकर की आज्ञा से किसी विशेष काम की वजह से अनुपस्थित थे|
तभी माँ पार्वती को लगा , की सारे गण सिर्फ शिव की ही आज्ञा का पालन करते है| उनकी आज्ञा का पालन करने वाला भी कोई होना चाहिए| इसलिए वो अपने शरीर पर लगे चन्दन के उबटन को एक बालक की आकृति दी और उसमे जान डाल दी|
बालक को स्नान गृह के द्वार पर सुरक्षा हेतु खड़ा कर दिया| कुछ समय पश्चात स्वयंम भगवान् शंकर पार्वती से मिलने आये|
लेकिन बालक ने उन्हें अन्दर जाने से मन कर दिया| शिव ने बालक को बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं माना|
भगवान् शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने पाने त्रिशूल से उस बालक का शीश(सर) काट दिया| जब माँ पार्वती ने यह द्रश्य देखा तो विलाप करने लगी|
क्रोध में शिव से कहा आप अपनी शक्ति से इस बालक को जीवित कर दीजिये अन्यथा में इस पूरे संसार को नष्ट कर दूँगी|
शिव ने माँ पार्वती का विकराल रूप देख कर, नंदी को कहा की रास्ते में सबसे पहले तुम्हे जो भी मिले उसका सर काट कर ले आओ|
नंदी को रास्ते में एक हथनी मिली| उसने बिलकुल तभी एक नवजात बच्चे को जन्म दिया था| नंदी उसका सर काट कर ले आये|
भगवान् ने हाथी के बच्चे का सर, उस बालक को लगा कर उसे पुनर्जीवित किया| माँ पार्वती को खुश करने के लिए बालक का नाम गणेश रखा और आशीर्वाद दिया|
इस संसार में जब भी किसी भी शुभ कार्य की शुरुवात होगी सबसे पहले आपकी पूजा होगी| तब से ही हर किसी शुभ काम से पेहले गणपति की पूजा करने का प्रावधान है|
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार एक बार नारद जी ने श्री नारायण से पूछा कि प्रभु आप बहुत विद्वान है और सभी वेदों को जानने वाले हैं।
मैं आप से ये जानना चाहता हूं कि जो भगवान शंकर सभी परेशानियों को दूर करने वाले माने जाते हैं। उन्होंने क्यों अपने पुत्र गणेश की के मस्तक को काट दिया।
यह सुनकर नारायण ने बोला हे नारद, एक समय की बात है शंकर को सूर्य देव पर किसी बात पर क्रोध आ गया| दोनों में भयंकर युद्ध हुआ अंत में भगवान् शिव ने सूर्य देव को अपने त्रिशूल से घायल कर दिया|
सूर्य देव अचेतन अवस्था में अपने रथ से पृथ्वी पर गिर गए| और मरणासन अवस्था में आ गए| सूर्य का प्रकाश कम होने लगा|
ऋषि कश्यप ने जब अपने पुत्र सूर्य को इस अवस्था में देखा तो उसे सीने से लगाकर विलाप करने लगे| सारे देवता भी घबरा गए क्योंकि सूर्य का प्रकाश कम होता जा रहा था और अन्धकार बढ़ रहा था|उस समय सारे देवताओं में हाहाकार मच गया। वे सभी भयभीत होकर जोर-जोर से रुदन करने लगे। अंधकार छा जाने से सारे जगत में अंधेरा हो गया।
तब ब्रह्मा के पौत्र तपस्वी कश्यप जी ने शिव जी को श्राप दिया की जैसा आज तुम्हारे प्रहार के कारण मेरे पुत्र का हाल हो रहा है। ठीक वैसे ही तुम्हारे पुत्र पर भी होगा।
ऋषि कश्यप का रुदन सुनकर शंकर का क्रोध शांत हो गया| उन्होंने सूर्य को फिर से जीवित कर दिया| ब्रह्मा कश्यप और शिव की कृपा से सूर्य दुवारा अपनी राशि में आरुण हो गए| और अन्धकार दूर कर जगत को प्रकाशित किया|ऋषि कश्यप के इसी श्राप के कारण भगवान् शंकर ने अपने पुत्र गणेश का सर अपने त्रिशूल से काट दिया था|
Wednesday, September 26, 2018
Sunday, September 16, 2018
बाबा बिश्वकर्मा पूजा विशेष - जाने आखिर क्यों अधूरा छोड़ना पड़ा बाबा विश्वकर्मा को देवघर में मंदिर निर्माण
बाबा बिश्वकर्मा पूजा विशेष
जाने आखिर क्यों अधूरा छोड़ना पड़ा बाबा विश्वकर्मा को देवघर में मंदिर निर्माण
विश्वकर्मा पूजा, विश्वकर्मा दिवा या विश्वकर्मा जयंती एक अद्वितीय हिंदू त्योहार है जिसे हर साल 17 सितंबर को मनाया जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि चंद्र कैलेंडर से मनाया जाने की बजाय, यह सौर कैलेंडर के अनुसार मनाया जाता है। यह सूर्य भगवान या सूर्य देवता सिन्हा राशी छोड़ देता है और कन्या राशि में प्रवेश करता है, अन्यथा कन्या संक्रांति दीवा के रूप में जाना जाता है। दीवाली के बाद यह दिन होता है, गोवर्धन पर्वत या भोजन के पर्वत के बाद इसे गोवर्धन पूजा भी कहा जाता है
विश्वकर्मा पूजा का इतिहास
महर्षि
अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रह्मविद्या जानने वाली थी वह
अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उससे सम्पुर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता
प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ।
पवित्र हिंदू परंपरा के अनुसार, विश्वकर्मा को दुनिया के दिव्य अभियंता के रूप में जाना जाता है। हर दूसरे भगवान की तरह, विश्वकर्मा को एक दिन असाइन किया जाता है जो उसका जन्मदिन या जयंती है। इसके साथ समस्या यह है कि चूंकि वह दुनिया के मूल निर्माता के रूप में जाना जाता है, इसलिए वह दुनिया बनाने से कुछ दिन पहले अस्तित्व में था। इस प्रकार, यह अपने जन्मदिन पर एक विशेष दिन असाइन करने के लिए तार्किक प्रतीत नहीं होता है। लेकिन विश्वकर्मा की पूजा करने वाले बहुत से लोग मनाने और मनाने के लिए बस एक महत्वपूर्ण दिन खोजते हैं
पवित्र हिंदू परंपरा के अनुसार, विश्वकर्मा को दुनिया के दिव्य अभियंता के रूप में जाना जाता है। हर दूसरे भगवान की तरह, विश्वकर्मा को एक दिन असाइन किया जाता है जो उसका जन्मदिन या जयंती है। इसके साथ समस्या यह है कि चूंकि वह दुनिया के मूल निर्माता के रूप में जाना जाता है, इसलिए वह दुनिया बनाने से कुछ दिन पहले अस्तित्व में था। इस प्रकार, यह अपने जन्मदिन पर एक विशेष दिन असाइन करने के लिए तार्किक प्रतीत नहीं होता है। लेकिन विश्वकर्मा की पूजा करने वाले बहुत से लोग मनाने और मनाने के लिए बस एक महत्वपूर्ण दिन खोजते हैं
कुछ तथ्य
भारत में विश्वकर्मा को शिल्पशस्त्र का अविष्कार करने वाला देवता माना जाता है।
प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहां ब्रहा, विष्णु ओर महेश
की वन्दना-अर्चना हुई है वहीं भगवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है।
विश्वकर्मा" शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है। बहुत से लोग विश्वकर्मा की पूजा करते हैं। हालांकि विशेष रूप से, विश्वकर्मा पूजा औद्योगिक
श्रमिकों, कलाकारों, कारीगरों, इंजीनियरों और बुनकरों द्वारा मनाई जाती है।
वास्तुशिल्प और इंजीनियरिंग समुदाय भी विश्वकर्मा का सम्मान करते हैं।
शिल्पकार भी अपने उपकरण का निर्माण विश्वकर्मा के काम के लिए करते हैं।
इसलिए, कारीगर विश्वकर्मा पूजा या विश्वकर्मा दिवा के दौरान अपने औजारों की पूजा करते हैं।
आर्किटेक्ट्स विश्वकर्मा का भी सम्मान करते हैं क्योंकि उन्हें भवनों के निर्माण से संबंधित
नियमों को पारित करने के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
कुछ मंदिर केवल विश्वकर्मा को समर्पित हैं, लेकिन वे मंदिर जो वैष्णव मंदिर हैं,
जहां उन्हें द्वितीयक देवता के रूप में पूजा की जाती है।
रावण की 'सोने की लंका' का निर्माण विश्वकर्मा ने ही किया था
देवघर बाबा मंदिर की निर्माण और
स्थापना
देवघर बाबा मंदिर की स्थापना स्वयं बाबा बिश्वकर्मा ने की है. सभी देवताओं ने बाबा विश्वकर्मा को मंदिर स्थापना का जिम्मा सौंपा. इस काम के लिए बाबा विश्वकर्मा को एक रात का ही वक्त दिया गया. विश्वकर्मा ने भी बाबा बैद्यनाथ मंदिर पार्वती मंदिर सहित 22 मंदिरों का निर्माण कर दिया. बाबा विश्वकर्मा बैद्यनाथ मंदिर यानि खुद की मंदिर को बड़ा बनाने में जुट गये. ये देख सभी देवताओं ने उन्हें कहा भोलेनाथ के मंदिर से बड़ा मंदिर आप कैसे बना सकते हैं. इस बात पर विश्वकर्मा भड़क गए और कहा मै जगन्नाथ हुँ तो मेरा मंदिर ही भव्य बनेगा. इस बात से चिंतित हो कर सभी देवताओं ने मुर्गा का रूप धारण कर विश्वकर्मा को संकेत देना शुरू कर दिया कि सुबह हो गई है. अब निर्माण कार्य की अवधि समाप्त हो गई है.
तभी विश्वकर्मा भगवान को अपनी मंदिर कार्य को आधा अधूरा छोड़ना पड़ा और आज ये मंदिर लक्ष्मी नारायण मंदिर के नाम से जाना जाता है.
Friday, September 14, 2018
शिवनगरी में पधारे गणपति
शिवनगरी में पधारे गणपति
भगवन भोलेनाथ की नगरी देवघर में, शिव पुत्र श्री गणेश की पूजा अर्चना बड़े धूम धाम से की जा रही है. पूरा देवघर भगवान् गणेश की पूजा को लेकर भक्तिमय हो गया है, घर घर में गणेश की मूर्ति स्थापित हो रही है और पूरा वातावरण संख और घंटी की धवनि और जयकारों से गूंज रही है
बता दे देवघर में गणेश पूजा बहुत ढुं धाम से होता है, शहर के गणेश मार्किट, भैरो बाजार, बिजली ऑफिस, चांदनी चौक, झौसागड़ी, बी एन झा पथ, बैजनाथपुर, बिलासी, रेड रोज, आदि इन जगहों पर पूजा बहुत पुरानी है.
कुछ जगहों पर जैसे मीना बाजार सब्जी मंडी में तो पूजा ४८ वर्ष पुरानी है
पेश है कुछ जगहों के गणपति
बिजली ऑफिस, देवघर में गणपति की विशाल प्रतिमा
सिद्धिविनायक सेवक समाज, बैजनाथपुर में स्थापित भगवान् गणेश
कैसा जमीन में धंस गया था बैद्यनाथधाम का शिवलिंग
बैद्यनाथधाम का प्राचीन शिवलिंग का रहस्य
कैसा जमीन में धंस गया था बैद्यनाथधाम का शिवलिंग
जब रावण निराश होकर अपने सिर की बलि चढ़ाने लगा तो शिव प्रकट हुए और रावण के साथ लंका जाने के लिए तैयार हो गए। लेकिन शर्त रख दी कि मैं तुम्हारे साथ लिंग रूप में चलूंगा। यह लिंग तुम जहां रख दोगे मैं वहीं पर विराजमान हो जाउंगा।
रावण भगवान भोलेनाथ का सबसे बड़ा भक्त था यह तो सभी को पता हैं लेकिन क्या आपको ये पता है की रावण की भक्ति बड़ी ही अनोखी और विचित्र थी। वह भगवान भोलेनाथ को सिर्फ अपनी ही भक्ति सीमा में रखना चाहता था। इसके लिए रावण ने अनेकोनेक उपाय किए पर भगवान भोलेनाथ तो ठहरे भोलेनाथ, वो भला एक के लिए कैसे रह सकते थे इसलिए रावण का हर दांव खाली गया।
जब रावण निराश होकर अपने सिर की बलि चढ़ाने लगा तो शिव प्रकट हुए और रावण के साथ लंका जाने के लिए तैयार हो गए। लेकिन शर्त रख दी कि मैं तुम्हारे साथ लिंग रूप में चलूंगा। यह लिंग तुम जहां रख दोगे मैं वहीं पर विराजमान हो जाउंगा।
रावण को अपने बाहु बल का बड़ा अभिमान था उसने सोचा कि शिवलिंग कितना भारी होगा इसे उठाकर में सीधा लंका ले जाऊंगा, यही सोचकर इसने शिव जी की शर्त झट से स्वीकार कर ली।
भगवान विष्णु ने देखा कि रावण शिव जी को लेकर लंका जा रहा है तो उन्हें जगत की चिंता सताने लगी। भगवान विष्णु बालक के रूप में रावण के सामने प्रकट हो गए। इसी समय रावण को लघु शंका लगी और उसने बालक बने विष्णु से अनुरोध किया कि शिवलिंग को अपने हाथों में थाम कर रखे, जब तक कि वह लघु शंका करके आता है।
रावण के पेट में गंगा समा गयी थी इसलिए वह लंबे समय तक मूत्र विसर्जन करता रहा। इसी बीच बालक बने विष्णु ने शिवलिंग को भूमि पर रख दिया और शिवलिंग वहीं स्थापित हो गया। रावण जब मूत्र त्याग करने के बाद लौटा तो भूमि पर रखे शिवलिंग को देखकर बालक पर बहुत क्रोधित हुआ। लेकिन वह कर भी क्या सकता था।
रावण ने शिवलिंग को उखाड़ने का पूरा प्रयास किया लेकिन वह टस से मस नहीं हुआ। क्रोध में भरकर रावण ने शिवलिंग के पैर पर एक लात मारी जिससे शिवलिंग भूमि में धंस। यह शिवलिंग झारखंड में स्थित बाबा बैद्यनाथ हैं।
Wednesday, September 12, 2018
गणेश महोत्सव 2018 .........लालबाग का राजा
गणेश महोत्सव
सुखकर्ता दुखहर्ता वार्ता विघ्नाची।
नुरवी पुरवी प्रेम कृपा जयाची॥
सर्वांगी सुंदर उटी शेंदुराची।
कंठी झळके माळ मुक्ताफळांची॥
जय देव, जय देव जय देव, जय देव,
जय मंगलमूर्ती, हो श्री मंगलमूर्ती
दर्शनमात्रे मन कामनापु्र्ती
मुंबई के गणपति महोत्सव के बारे में तो सबने सुना ही होगा
आइये आपको मुंबई के कुछ खास गणपति के दर्शन कराये
लालबाग का राजा
मुंबई का सबसे अधिक लोकप्रिय सार्वजनिक गणेश मंडल है। लालबागचा राजा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल मंडल की स्थापना वर्ष १९३४ में हुई थी। यह मुंबई के लालबाग, परेल इलाके में स्थित हैं।
आज हालत यह है कि लालबाग के राजा के दर्शन करना ही अपने आप में भाग्यशाली हो जाना है। यहाँ मन्नते माँगी जाती है और बताया जाता है कि लोगों की मन्नते पूरी भी होती है। लालबाग के राजा की ख्याति इसी बात से आंकी जा सकती है यहाँ का जो चढ़ावा आता है वह २० से २५ करोड़ रुपयों से अधिक का है जो भक्तजन अर्पित करते हैं। मंडल ने अभी तक 20 करोड़ रुपए (नकदी और सोना) का दान इकट्ठा करने का रिकॉर्ड दर्ज किया है, वो भी तब जब सोने की कीमत (2010–2011) में सबसे अधिक थी।
यह गणेश मंडल अपने १० दिवसीय समारोह के दौरान लाखों लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस प्रसिद्ध गणपति को ‘नवसाचा गणपति’ (इच्छाओं की पूर्ति करने वाला) के रूप में भी जाना जाता है। हर वर्ष यहाँ करीबन ५ किलो मीटर की लंबी कतार लगती है, केवल दर्शन पाने के लिये। लालबाग के गणेश मूर्ति का विसर्जन गिरगांव चौपाटी में दसवें दिन किया जाता है।
Lalbaugcha Raja Live Darshan #LalbaugchaRaja #GanpatiBappaMaurya #GaneshChaturthi @AmitShah @Dev_Fadnavis @ShelarAshish @TwitterIndia https://t.co/55HOuG6ey9— Lalbaugcha Raja (@LalbaugchaRaja) September 13, 2018
"लालबाग का राजा" प्रतिमा स्थापना 11 सितम्बर को बड़े ही धूम धाम से हुआ
आइये पेश है लालबाग़ के राजा की कुछ झलकियां
इस बार भी लाल बाग के राजा को बड़े ही खूबसूरत तरह से सजाया गया है. सोने के मुकुट के साथ वो शान से बैठे नजर आ रहे हैं
लाल बाग के राजा को बड़े ही धूमधाम से स्वागत किया जाता है. हर साल अलग-अलग तरह से उनको सजाया जाता है. इस बार वो सोने के मुकुट में नजर आ रहे हैं और शान से बैठे दिख रहे हैं. उनकी तस्वीरें भी काफी वायरल हो रही हैं.
1934 से लेकर अब तक की इन सारी मूर्तियों में एक खास समानता है। इन्हें लालबाग में रहने वाले एक ही परिवार के मूर्तिकारों ने बनाया है। पिछले 8 दशकों से इलाके का कांबली परिवार ही लालबाग के राजा की मूर्ति बना रहा है। करीब 20 फीट ऊंची गणपति की मूर्ति बनाने का ये हुनर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच रहा है। फिलहाल इस परिवार की तीसरी पीढ़ी ये काम कर रही है। कांबली परिवार के सबसे बुजुर्ग शख्स 73 साल के रत्नाकर कांबली हैं, जिन्होंने अपने पिता से ये हुनर सीखा था। रत्नाकर कांबली के पिता पहले महाराष्ट्र में घूम-घूमकर मूर्तियां बनाते थे, लेकिन एक बार वो लालबाग पहुंचे तो फिर यहीं के होकर रह गए। आज इस परिवार के सहयोग के बिना लालबाग चा राजा के दरबार की कल्पना भी नहीं की जा सकती
Lalbaugcha RajaVerified account
@LalbaugchaRaja पर भी समय समय पर लाइव दर्शन कराया जा रहा हैLalbaugcha Raja LIVE Darshan #LalbaugchaRaja #GaneshChaturthi #GanpatiBappaMorya https://t.co/smqhK0kBD5
— Lalbaugcha Raja (@LalbaugchaRaja) September 13, 2018
इतिहास
इस मंडल की स्थापना वर्ष 1934 में अपने मौजूदा स्थान पर (लालबाग, परेल) हुई थी। पूर्व पार्षद श्री कुंवरजी जेठाभाई शाह, डॉ॰ वी.बी कोरगाओंकर और स्थानीय निवासियों के लगातार प्रयासों और समर्थन के बाद, मालक रजबअली तय्यबअली ने बाजार के निर्माण के लिए एक भूखंड देने का फैसला किया। मंडल का गठन उस युग में हुआ जब स्वतंत्रता संघर्ष अपने पूरे चरम पर था। लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ की लोगों की जागृति के लिए “सार्वजनिक गणेशोत्सव” को विचार-विमर्श को माध्यम बनाया था। यहा धार्मिक कर्तव्यों के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक मुद्दों पर भी विचार विमर्श किया जाता था। मुम्बई में गणेश उत्सव के दौरान सभी की नजर प्रसिद्ध ‘लालबाग के राजा’ के ऊपर होती है। इन्हें ‘मन्नतों का गणेश’ भी कहा जाता है। लालबाग में स्थापित होने वाले गणेश भगवान की प्रतिमा के दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं और ये भक्तगण कई कई घंटो (२० से २५ घंटे) तक कतारों में खड़े रहते हैं। गणेश चतुर्थी के दिन ‘लालबाग के राजा’ यानी गणेश भगवान की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के बाद यहां मन्नत के साथ आने वाले भक्तगणों में बॉलीवुड के कई मशहूर फिल्मी सितारे भी शामिल होते हैं। बॉलीवुड की फिल्मी हस्तियां सुबह आकर ही यहां गणेश भगवान की पूजा कर अपने मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं
सामाजिक कार्य
लालबागचा मंडल दान में आई हुई रकम से कई चैरिटी भी करता है। इस मंडल की अपनी कई अस्पताल और एम्बुलेंस हैं जहां गरीबों का निःशुल्क इलाज किया जाता है। प्राकृतिक आपदओं में राहत कोष के लिए भी लालबागचा मंडल आर्थिक रूप से मदद करता है। १९५९ में ‘कस्तूरबा फंड’, १९४७ में ‘महात्मा गांधी मेमोरियल फंड’ और बिहार बाढ़ राहत कोष के लिए दान दिया।
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